सुबह से ही पूरा सोसल मीडिया अर्णव गोस्वामी की गिरफ्तारी की खबरों से भरा पड़ा है । कोई विरोध कर रहा है तो कोई महाराष्ट्र पुलिस की इस करवाई को सही ठहराने में लगा हुआ है । सबकी अलग अलग राय है । मेरा भी मन था कि मैं भी कुछ लिखूं पर न जाने क्यों कुछ लिखने की हिम्मत नही हो रही थी । पर आखिरकार अपने आप को रोक नही पा रहा और लिखने बैठ गया ।
ये बात तो सही है कि जिस तरीके से एक राष्ट्रीय चैनल के संपादक की गिरफ्तारी हुई वो ठीक नही है । अगर अर्णव के खिलाफ वास्तव में मुम्बई पुलिस के पास सबूत थे या आरोप थे तो करवाई की जा सकती थी पर महाराष्ट्र पुलिस ने जो तरीका अख्तियार किया वो सही नही था । अब बहस छिड़ गई है कि ये लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर प्रहार है । उद्धव सरकार तानाशाही पर उतर गई है । ठीक बात है ऐसा होना भी नही चाहिए और ये लोकतंत्र के लिए ठीक भी नही है पर क्या किसी ने इस बात पर चर्चा की कि आखिर ये नौबत ही क्यो आई ?
दरशल चाहे वो राजनीति हो या पत्रकारिता , सब की अलग अलग सीमाएं निर्धारित की गई है पर जब राजनेता या फिर पत्रकार अपनी मर्यादा और सीमा से बाहर निकलने लगे और लोक हित को छोड़कर अपने हित के बारे में सोचने लगे तो ये नौबत आ ही जाती है । सुशांत सिंह मर्डर केस में जिस तरीके से रिपोर्टिंग की गई वो कई मामले में सही नही थी । सरकार और पत्रकार दोनो आपस मे एक दूसरे पर हमले करने लगे थे । मामला अगर तभी सम्हल जाता तो आज ये नौबत नही आती । दरसल इस मामले में राजनेताओं और टीबी चैनलो दोनो अपनी मर्यादा और सीमा से आगे निकल गए थे । जो न ही पत्रकारीय धर्म के लिहाज से ठीक है और न ही राजनीतिक तौर पर सही है ।
अब महाराष्ट्र सरकार के इस कदम की आलोचना बीजेपी के लोग खुले तौर पर कर रहे है । पत्रकार भी इसे लोकतंत्र पर हमला बता रहे है । मेरा मानना है कि इस लड़ाई में जो पहले हुआ न वो ठीक था और न जो अब हो रहा है वो ठीक है । पर बीजेपी अब उन पत्रकारों के निशाने पर आ गई है जो कभी न कभी कही न कही बीजेपी सरकारों के निशाने पर रहे है और उनके खिलाफ बीजेपी शासित राज्यो में इस तरह की ज्यादतियां हुई है । अकेले यूपी में पत्रकारो के खिलाफ 40 से अधिक मुकदमे हुए है । मैं खुद इस सरकार में सच्चाई दिखाने की सजा भुगत रहा हु और महज एक साल में तीन तीन नौकरियों से इस्तीफा इस सरकार के अफसरों के संस्थान पर पड़ने वाले दबाव के कारण दे चुका हूं ।
सवाल यही है कि आखिर पत्रकारो के लिए पत्रकारो ने ही अलग अलग मापदंड क्यो बना रखे है । लखनऊ के ही बहुत से ऐसे पत्रकार है जो सरकार की कथाओं पर सुबह से शाम तक कत्थक करते नजर आते है वो इस गिरफ्तरी का गला फाड़ फाड़ के विरोध कर रहे है । विरोध होना भी चाहिए पर अलग अलग लोगो के लिए अलग अलग मापदंड क्यो ? उन्हें भी समझना होगा की जो अर्णव के साथ हुआ वो किसी के साथ भी हो सकता है । क्योंकि वो भी अपनी सीमाओं को लांघ चुके है ।
वास्तव में अब दौर वो नही रह गया जो पहले कभी हुआ करता था मुझे याद है कि जब मायावती मुख्यमंत्री हुआ करती थी तो बस एक पत्रकार पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने पुलिस लगाई और फिर पूरे लखनऊ के पत्रकार मुख्यमंत्री के आवास पर धरने पर बैठ गए और फिर सरकार को झुकना पड़ा । पर क्या अब किसी की हिम्मत है कि किसी पत्रकार पर हुए अत्याचार के खिलाफ खुलकर बोल भी दे । सबको बस अपनी चिंता है । सब बस अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए है । सबने अपनी सीमाएं तोड़ दी है । सब ने अपनी कलम की मर्यादा खूंटी में टांग दी है । वो बस वही बोलते है जो सरकार में बैठे लोग बुलवाते है । अगर किसी पत्रकार ने हिम्मत कर के किसी गलत नीति का विरोध कर दिया तो उसे सरकार में बैठे लोग खामोश कराने , नौकरी से निकलवाने और संस्थान से निकलवाने में जुट जाते है । किसी के पीछे आर्थिक अपराध अनुसंधान को लगा देते है तो फिर किसी पर रासुका लगाकर जेल भेजवाने में जुट जाते है । लखनऊ में 4 पीएम के संपादक संजय शर्मा और उत्तराखंड में उमेश शर्मा उसके उदाहरण है । यूपी में बृजेश मिश्रा जैसे पत्रकार के चैनल का सरकारी विज्ञापन बन्द करवा के चैनल बन्द करवाने में जुट जाते है । और जो पत्रकार सरकार का पीआर एजेंट बनके काम करे उसे बड़े से बड़े चैनल में नौकरी दिलवाने में लग जाते है ।
ये हो अर्णव के साथ हुआ है वो इसी का नतीजा है । आने वाले वक्त में इससे भी बुरी स्थिति आ सकती है । अर्णव गोस्वामी का चैनल भी महारास्ट्र सरकार के विचारधारा के विपरीत चल रहा था । महारास्ट्र की उद्धव सरकार ने भी वही किया जो यूपी की योगी आदित्यनाथ की सरकार उत्तर प्रदेश में पत्रकारो के साथ कर रही है या उत्तराखंड की त्रिवेंद्र रावत सरकार वहाँ के पत्रकारो के साथ कर रही है । जितनी कसूरवार वहाँ की सरकार है उतने ही कसूरवार हम और आप जैसे पत्रकार भी है ।
जब हम सरकारी तोते बनकर अपनी सीमाओं को लांघकर आगे बढ़ जाते है तो हर प्रदेश की सरकार अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को ऐसे ही खामोश कराती है । पर अर्णव जैसे लोगो की आवाज तो उठ जाती है पर हम जैसों की आवाज भीड़ में खो जाती है ।
मनीष कुमार पांडेय