बॉलीवुड एक फ़िल्म में सनी द्योल का एक डायलॉक है कि ” तू चाहता है कि मैं तेरा कुत्ता बनकर रहू , तू कहें तो भौकू , तू कहे तो काटू ” आजकल कुछ ऐसी ही हालत मीडिया संस्थानों की हो गई है । सरकार में बैठे कुछ अफसरों ने मीडिया को कुत्ता बना दिया है । आपको यकीन नही होगा पर ये सच है ।
मैं उत्तर प्रदेश में रहता हूं पिछले एक दशक के राजधानी लखनऊ में रह रहा हूं और पिछली दो सरकारों में मीडिया का वो हश्र जो आज है वो नही देखा था । कहा जाता है कि राजनीति में जिस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल जाय वो किसी के दबाव में नही आती । वो कोई भी फैसला प्रदेश या देश हित में ले सकती है पर ये राजनीति का दूसरा दौर है । इस दौर में लोक हितों को दूसरे स्थान पर रखा जाता है और सबसे ज्यादा फोकस इस बात पर होता है कि कौन से निर्णय से हमारा वोट बैंक प्रभावित होगा । किस फैसले से हमारे वोट बढ़ेंगे , किन बातों का असर जनता पर पड़ेगा और कौन सी ख़बर हमारे वोट बैंक को प्रभावित कर सकती है ।
सरकार के पास एक पूरा विभाग होता है जो सरकार और जनता के बीच मीडिया के माध्यम से अपनी बात पहुचाता है क्योंकि राजनेता रोज जनसभा और रैलियां नही कर सकते है । जनता और सरकारों के बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी मीडिया ही है । मीडिया ही जनता को बताती है कि सरकार में बैठे लोग अच्छे काम कर रहे है या उनके लिए गए किसी निर्णय से जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा । सरकार में बैठे लोगो के लिए भी जनता के साथ संवाद का सबसे सशक्त माध्यम मीडिया ही है और यही वजह है कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है ।
पर आज का की मीडिया भी अपने संक्रमण काल से गुजर रही है । अखबारों के संपादको की नियुक्ति का माध्यम योग्यता नही बल्कि इस बात पर निर्धारित की जाती है कि संपादक जी के संबंध सरकार से कैसे है ? संपादक जी को सीएम जानते पहचानते है या नही । मीडिया संस्थान भी अब लोकहित को छोड़कर अपने स्वयं के हितों की ज्यादा चिंता करते है जिसका परिणाम ये है कि आज के दौर पर निष्पक्ष पत्रकारियता करना संभव नही है ।
सरकार और मीडिया के बीच की कड़ी कहें जाने वाले अफसरों ने संस्थानों को अपना पालतू कुत्ता बना लिया है । अगर कोई संस्थान अफसरों की बात नही मानता तो ये सरकारी अफसर उसका हुक्का पानी बन्द करवाने में कोई कसर नही छोड़ते । संस्थानों में नौकरी का आधार सिफारिश हो गई है , मतलब अगर किसी सरकारी अफसर की सिफारिश है तभी किसी संस्थान में किसी पत्रकार को नौकरी मिल सकती है और कही किसी पत्रकार के अंदर अगर सच का कीड़ा जाग गया और उसने दो चार खबरें ऐसी कर डाली जो सरकारी सिटम का पोल खोलने वाली है तो फिर यही अफसर उस पत्रकार को भी खामोश करने में संस्थानों को लाखों रुपये का नजराना भेंज देते है और संस्थानों के मालिक भी किसी पालतू की तरह अपने मालिक का हुक्म बजाने के लिए मजबूर हो जाते है । अब भगवान ही जाने ये दौर कब बदलेगा । मुझे तो आने वाले कुछ सालों में ये तस्वीर बदलती हुई नही दिखाई दे रही है इसलिये आत्मनिर्भर बनने की कोसिस में जुटा पड़ा हु की कम से कम दुबारा अब कोई दूसरा मेरी कलम का सौदा न कर सके ।
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मनीष कुमार पांडेय