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व्यवस्था के साथ रहिये आबाद रहेंगे (व्यंग )

(नोट -ये पूरा लेख एक व्यंग है।  मेरा अनुरोध उन मन्थराओ से है की इसे पढ़े और फिर विचार करें ना की इसका इस्तेमाल आग लगाने के लिए करें )

एक अजीब सी ख़ामोशी है चारो तरफ। हर कोई खामोश है या शायद बोलना नहीं चाहता। ऐसा लगता  है मानो पूरी व्यस्था को कुछ लोगो ने जकड लिया है। हर तरफ सिर्फ जय जयकार हो रही है ।  पिछले एक दशक में मैंने ऐसा पहले कभी देखा और न ही सुना था। सच बोलना तो मानो गुनाह हो गया है। कुछ लोग उंगलियों पर गिने जा सकते है जो सच बोलने का साहस रखते है लेकिन उनका सच भी किसी न किसी राजनीतिक दबाव  से प्रेरित होता है।

पिछले कुछ दिनों से मैंने महसूस किया है की अगर आप सच को सच की तरह बोलने लगेंगे तो व्यवस्था में बैठे कुछ लोग आपको कुचलने लगेंगे। आपको खामोश कराने की कोशिश की जाएगी।  आपको एहसास दिलाया जायेगा की अगर आप हमारी व्यवस्था में खुश नहीं है तो आपको समाज में रहने का कोई अधिकार नहीं है। तरह तरह से आपपर दबाव बनाया जायेगा तब तक जब तक खामोश ना हो जाए।  आपके सामने ऐसी परिस्थितिया पैदा की जाएँगी की जिससे आप को लगने लगेगा की अगर आप ने मौजूदा व्यस्था से समझौता नहीं किया तो आपका परिवार आपके बच्चे सड़क पर आ जायेंगे।  थक हारकर आपको समझौता करना ही पड़ेगा।

सत्ता के सिंहासन के ऊपर बैठने वाले लोकतान्त्रिक तरीके से चुने जाने वालो का तो मानो वजूद ही ख़त्म हो गया है। सरकारों को नेता नहीं नौकरशाह चला रहे है । नौकरशाहों का एक समूह तानाशाह बन बैठा है।  ये जिसे चाहे जब चाहे खामोश कर दें।  इन्हे ऐसी ताकत दे दी गई है जिसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं है।  बस कैसे भी करके इन्हे विरोध का कोई बीज अंकुरित नहीं होने देना है।

सबसे बड़ी समस्या तो मिडिया के सामने है।  मिडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है लेकिन इसी लोकतंत्र से चुनकर आयी हुई सरकारों ने मिडिया के हाथो में हथकड़ी पहना दी है। अगर आप दिन रात चारो याम सरकारी गुणगान करते है तो आपको वो सब मिल सकता है जिसकी आपने कल्पना भी ना की  होगी लेकिन अगर आपने कही सरकार को आइना दिखने की कोसिस भी की तो फिर आप पर ये व्यस्था कहर बनकर टूट पड़ेगी।

अखबारों में अब खबरों की जगह इश्तेहार ज्यादा होते है।  टीवी पर खबरों से ज्यादा पेड न्यूज़ होती है जो आम लोगो को तो नहीं समझ में आती लेकिन यही खबरे टी वी चैनलों के विज्ञापन का मापदंड होती है।  जिसका जितना ज्यादा प्रसार उसको उतना ज्यादा इश्तेहार। बड़े से बड़ा संसथान इस व्यस्था से समझौता कर चूका है किसी को क्या पड़ी है लोकतंत्र की ? आखिर जो लोग ये करवा रहें है उन्हें भी  तो इस लोकतंत्र ने ही जन्मा है।

सबके सामने अपने अस्तित्व को बचाये रखने की चुनौती है। इसलिए सब खामोश है।  जो हो रहा है वो ठीक है।  जो होगा वो अच्छा होगा।  किसे जरूरत है इस व्यवस्था का विरोध करने की। बदलने की ख्वाइश सबको है पर सब चाहते है की क्रांति कोई और करे , हम तो खामोश रहेंगे। इस व्यस्था से अपना हिस्सा लेंगे।  और अगर कभी ये व्यस्था बदली तो फिर आने वाली व्यस्था से जुड़ जायँगे।  बस खामोश रहेंगे ! लिहाजा हम भी खामोश हैं। खामोश रहेंगे जिसे जो बोलना है बोले , जो सोचना है सोचे, फर्क नहीं पड़ता मुझे।  इसलिए आँखे बंद करके हम भी सिर्फ उधर ही देखते है जिधर कुछ अच्छा दिखाई देता है। उसी की तारीफ करते हैं और कभी कभार गलत को गलत भी बोल देते है , फिर अंदर से एक आवाज आती है सावधान ,और फिर आगे बढ़ जाते है ,खामोश होकर। क्योकि व्यस्था की व्यस्था बदलने के लिए आज तक जो भी आगे आये है ,इस व्यस्था ने उसे व्यस्थित कर दिया है।  इसलिए मेरा मानना है की व्यस्था के साथ ही चलो।  खुश रहोगे ,आबाद रहोगे नहीं तो इस व्यवस्था को व्यवस्थित करने में न जाने कितने बर्बाद हो गए। 

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